शनिवार, 31 जनवरी 2015

सत्ता और शून्य: व्यवहारिक सत्य के आयाम


सत्ता और शून्य: व्यवहारिक सत्य के आयाम 

सत्ता और शून्य की अवधारणाएं एक दूसरे की विरोधी और विपरीत हैं| यह मन की सीमा है अवश्य परन्तु मन द्वारा विरोध और सीमित अवधारणा बनाए रख सकने की यह स्वतंत्रता उसके लिए वरदान और अभिशाप दोनों ही हो सकता है| कारण, उसे चुनाव की स्वतंत्रता है| चुनाव की स्वतंत्रता उसकी अपनी अंतर्दृष्टि और आत्मविशवास पर निर्भर है| वस्तुत: आंतरिक-स्वतंत्रता प्रयास, कर्म और स्वतन्त्रतापूर्वक चुनाव एवं कर्म में संतोष का आनंद ले सकने की क्षमता ही है| यही है जो मनुष्य को साहसिक अभियानों और  अपने को भी अतिक्रम कर नवीन प्रगति की ओर ले जा सकता है|

हम जिस जगत में रहते हैं वहाँ अभावात्मक शून्य भी सच की तरह शक्तिशाली हो जाता है| उदाहरण के लिए रस्सी में सर्प के भ्रम के भी से प्राण भी शरीर छोड़ सकता है| परन्तु, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मन हमारे पार्थिव जीवन का नेता हो सकता है|  सत्ता और शून्य की अवधारणाएं एक दूसरे की विरोधी और विपरीत हैं| यद्यपि यह मन की सीमा है अवश्य परन्तु मन द्वारा विरोध और सीमित अवधारणा बनाए रख सकने की यह स्वतंत्रता उसके लिए वरदान और अभिशाप दोनों ही हो सकता है| उसे चुनाव की स्वतंत्रता है| चुनाव की स्वतंत्रता उसकी अपनी अंतर्दृष्टि और आत्मविशवास पर निर्भर है| वस्तुत: आंतरिक-स्वतंत्रता प्रयास, कर्म और स्वतन्त्रतापूर्वक चुनाव एवं कर्म में संतोष का आनंद ले सकने की क्षमता ही है जो मनुष्य को साहसिक अभियानों और  अपने को भी अतिक्रम कर नवीन प्रगति की ओर ले जाता है|

 मन हमारे पार्थिव जीवन का नेता हो सकता है परन्तु वह स्वयं अनंत में सांत और सीमित ही है बल्कि सीमित-मन की अपनी एक स्वतंत्र  दुनिया हो सकती है|  फिर भी मन अनंत और असीमित के  एक अंग के रूप में सीमित  ही रहेगा| एक तरह से हमारा पर्थिव मन इंद्र है, - वह अन्य इन्द्रियों में  श्रेष्ठ और उनका  राजा है जैसी कि वैदिक परम्परा है|| हम अन्य इन्द्रियों को उसका मात्र  सेवक मान सकते हैं|  

उल्लेखनीय है कि वैदिक ऋषि दीर्घतमस नासदीय-सूक्त ( १०/१२९) में शून्य नहीं बल्कि  जिस सता का वर्णन कर रहे हैं, - वह मन के लिए अनिर्वचनीय एक एकमेव सत्ता का वर्णन,  प्रकाश-अन्धकार, मृत्यु-अमरत्व जैसी मानसिक अवधारणाओं की सहायता से कर रहे हैं|  कदाचित हम द्वैत के जगत में रहते हैं इसी कारण, सम्पर्क, स्पर्श, सामंजस्य या फिर  एक के विरोध से ही एक  दूसरे की अनुभूति संभव है|  कवि दीर्घतमस किसी विलक्षण सत्ता को द्रष्टा ऋषि की तरह देख रहे हैं|

यह एक दर्शन मात्र नहीं है बल्कि हमारे भौतिक एवं व्यवहारिक जीवन का एक सच है| यह सोच हमें कुछ दिव्य और नवीन सकारात्मक सोच की और हमे ले जा सकता है| यह दृष्टि हमें सृष्टि के अपूर्व एवं नवीन साहसिक अभियानों की ओर हमें ले जा सकता है|

-अशोक 'मनीष'

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हे सत्य आविर्भव

हे सत्य आविर्भव

निश्चेतना का समुद्र, -
अनन्त और अज्ञेय|


जागता हूं मैं,
अलसाया हुआ-
द्वैत की पीड़ा में;
मींच लेता हूं आंखें
पुनः सोने की कोशिश, -बेकार !

हवा बहुत गर्म है,
लोगों का शोर,
अनुप्लिब्धियों का बोध,
स्मृतियों का दर्द,
भविष्य की चिंता,
त्रिगुण की हलचल है|
सोना बहुत मुश्किल,
क्योंकि प्रकाश, बहुत तीखा है|


अनंत देशकाल में
विविधता के विधान हैं
परमार्थ की खोज और
सृजन की व्याकुलता है
अधीनस्थ ऋतों में
सत्य-ऋत खोया हुआ  
मेरे इस जन्म में
नव-सृजन शेष है !

बिंदु देशकाल में
मेरा यह जगत-
अहं की धुरी पर
निरन्तर गतिशील
एक चक्रवात में-
बहिर्मुखी पदार्थ क्षर,
सदा फिसलता अर्थ
देखता मैं बेबस|

चक्र का चक्कर,
प्रवाह सातत्य
प्रतिपल घिसता अहं-
क्षर नहीं होता|

प्रयोजनों की धुन्ध में-,
निरर्थक अर्थ;
अनागत से त्रस्त मैं
और, -अनंत अज्ञात|

सत्यों के लोक में,
परमार्थ की खोज में,
अनंत आकाश में-
एक विहग उड़ता है !

अभीप्सा की ऊष्मा-
अस्पष्ट, शब्दहीन,
अमूर्त, इन्द्रियातीत;
अनंत की माटी में,
रसमय कोई प्राण है;
श्रद्धा का बीज और,
विश्वास का संबल; पर,-
सृजन अभी बाकी है !

अनुप्लब्ध आदर्श,
अभीप्सा, -निस्पंद और शान्त;
एक शक्ति-स्पंद, -अमूर्त, अदृश्य,
पदार्थ, -निरवयव, शुद्ध,
द्वन्दों का विपरीत छोर !

द्वन्दों में उतरता हुआ-
परात्पर, अनंत, अव्यक्त,-
कोई समुद्र शान्त;
पदों में विभाजित अव्यक्त,
पदार्थ में व्यक्त अर्थ;
मैं,-द्रष्टा,-
अवाक, निःशब्द और मौन !
वर्धित होती कोई ज्योति, -क्षीण !
अभीप्सा बस एक-
हे सत्य,- आविर्भव !

-अशोक “मनीष’’



शाश्वत उषा

वही उषा, -नित-नवीन
जगाती है मुझे रोज !

उसका सौंदर्य अलौकिक,
पुकारता है मुझे पर...
बहता रहता हूँ मैं
भौतिक संवेदनाओं की धारा में
भटकता रहता हूँ,-
पंचेंद्रियों की बंद कारा में !

मैं, -एक आत्मा,
स्रष्टा, नियंता और भोक्ता
अपने मूल स्रोत से भटकी हुई
अपनी ही सीमाओं से त्रस्त
संकुचित और मजबूर 
नव-सृजन के लिए आतुर !

हृदयाकाश में फूटता है घट
विसर्जित होता अहं|

अज्ञात लोक की किरणें सतरंगी 
भेंटती हैं धरती 
छूती हैं, -तन मन ! 

हृदयाकाश का पंक्षी एक
अमित सौन्दर्य का खोजी, -हृदयस्थ 
अनंत का अभीप्सु 
बढ़ती अभीप्साग्नि 
मौन पुकार और 
नव सृजन की आतुरता  
उन्मुक्ति की आस में
आकाश में एक छलांग !

चेतना का समुद्र, -अनिर्वचनीय !
अज्ञात लोक की किरणें सतरंगी
भेंटती हैं धरती
छूती हैं, तन-मन !
अनाहद नाद एक
मौन मैं निस्पंद,
अनंत का स्पर्श,
एक नवजन्म |

-अशोक “मनीष’’





शिशु को पलने दो

दर्द मेरी हार है
हार का दर्द,
अहं की मृत्यु है !

कामना के धुंवे से
दर्द को उठने दो
निश्चेतन पत्थर को
अग्नि में जलने दो
पत्थर पिघलने दो !

मैं की चीख को,
समर्पंण के यज्ञ में
दर्द को आहुति बन,
अभीप्सा की अग्नि में
मौन बन जाने दो;
अवरोहण, नवचेतना का,
आरोहण, बन जाने दो !

मैं तो संसार हूं
अनंत में सांत हूं
हमारे संबन्धों को
प्रेम में पलने दो !

मन तो अज्ञानी है
हलचल सब, तेरी है
मन, मौन होने दो,
शिशु को बढ़ने दो,
नया जगत बनने दो !

कामनाओं के फ्रेम में
स्फटिक प्रारूप यह,-
मेरा अध्यास, -पथराये प्रारूप पर
एक चोट पड़ने दो !

पुरातन यह पीड़ा है
हलचल सब तेरी है
कामना की सुलगन को
अग्निशिखा बनने दो !

करुणा को बहने दो
कृपा को उतरने दो
रूप को बढने दो
पूर्ण उसे बनने दो
नव-सृजन होने दो !

नित्य प्रगतिशील जग,
तुम्हारा ही आंचल है
इस प्रेम के आंचल में
शिशु को पलने दो !


-अशोक “मनीष’’



                                                   कैसे कहूं कि सब झूठ है !
   

पंचेन्द्रियों में बंद मैं
देखता हूं अपनी सीमाऐं
उस पार,-कुछ है,
मेरे बोध की सीमाओं से परे-
अदृष्य, अज्ञात, अनंत !
छूता है मुझे-
कैसे कहूं कि सब झूठ है !

अनंत-अज्ञात का आकर्षण-दुर्निवार !
खटखटाता है मेरी सीमाऐं
मेरी सत्ता का कोई अंग
पंचेन्द्रिय बोधों से स्वतंत्र,
भरता है उड़ानें,-
संभावनाओं की अनंत दिशाओं में, -
इस पार और उसपार !
कैसे कहूं कि सब झूठ है !


पंचेन्द्रिय बोधों के प्रिज्म पर
उतरता है रंगहीन द्रव्य, -अमूर्त !
उभरते हैं स्वर्गिक रंग
जगत बनता है ठोस
कैसे कहूं कि सब झूठ है !

चेतना का समुद्र, -अनंत;
मेरी छोठी आंखों में,
वहाँ तैरता है एक अनंत
बनता है एक आधार और पुल,
सांत और अनंत के बीच;
होता है सृजन एक, -नवीन,
मेरी मध्यवर्ती सीमाओं पर;
होता है कुछ घटित
एक जगत बनता है ठोस
कैसे कहूं कि सब झूठ है !

पथराये इस विश्व में,
जड़त्व की निष्चेतना में-
जीवन की हलचल,
तथाकथित ऊर्जातरंग,
भावहीन, निर्जीव और जड़;
कोषाणुओं के रसायनिक संघात
परास्परिकता,- आदानप्रदानसामंजस्य,-
ऋतत्व का सत्य, -सूक्ष्म;
आज्ञाकारी तारे और सूर्य,
मेरी अभीप्सा, प्रार्थना और प्रेम,
ऊष्मा यह मधुर !
कैसे कहूं कि सब झूठ है !

-अशोक “मनीष’’




अदिति का पुत्र

क्या कुछ तुम्हारा है ?
तुम्हारा सब न्यासहै
न्यासधारीसेवक हो
प्रभु लाभधारीहैं !

कामना तो प्रवाह है
सारा छ्ण-भंगुर जगत
तुम्हारा व्यामोह है !

तमस से द्वन्द्व है
उपचय है, वृद्धि है
तुम यंत्र साधन हो !

प्रकाश की जीत का
तुम्हारा विश्वास ही
विजय का प्रमाण है !

तमस में गिरा सही
अदिति का त्यागा हुआ
अदिति के पुत्र अहो-
तुम तो आदित्य हो !

-अशोक ‘मनीष’



                                                             रहस्यमय अग्नि 


कैसी यह अग्नि भला
नहीं, कामाग्नि नहीं
कामना का पता नहीं
त्याग भी तो नहीं यहाँ
याचनायह कैसी है !


क्या मैं निवेदित करूँ ?
अपना, कुछ अपना नहीं
जीवन यह कैसा है ?


प्रियतम का पता नहीं 
कैसी यह ऊष्मा है ?
यह प्रेम भला कैसा है ?


किसकी पुकार यह-
किसका मैं खोजी ?


पाप-पुण्य, जीवन सकल
स्वाहा सब स्वाहा है !
स्वामी का पता नहीं
तत परम जानूँ नहीं
किसको निवेदित मैं
कौन देव मेरा है ? 


अग्नि यह रहस्यमयी
जलन का पता नहीं
कैसी मिठास अहा,
कैसी यह ऊष्मा है !


ऊर्ध्वमुखी अग्नि एक
पल पल का धर्म कर्म
ऊष्मा में पगे बढ़ें
ऊष्मित यह जीवन हो !


रोज अहं गल रहा
कौन फिर बच रहा ?


रोज गलूँ चुकूं नहीं
अग्नि मधुर जलने दो !

--अशोक ‘मनीष’