हे सत्य आविर्भव
निश्चेतना का समुद्र, -
अनन्त और अज्ञेय|
जागता हूं मैं,
अलसाया हुआ-
द्वैत की पीड़ा में;
मींच लेता हूं आंखें
पुनः सोने की कोशिश, -बेकार !
हवा बहुत गर्म है,
लोगों का शोर,
अनुप्लिब्धियों का बोध,
स्मृतियों का दर्द,
भविष्य की चिंता,
त्रिगुण की हलचल है|
सोना बहुत मुश्किल,
क्योंकि प्रकाश, बहुत तीखा है|
अनंत देशकाल में
विविधता के विधान हैं
परमार्थ की खोज और
सृजन की व्याकुलता है
अधीनस्थ ऋतों में
सत्य-ऋत खोया हुआ
मेरे इस जन्म में
नव-सृजन शेष है !
बिंदु देशकाल में
मेरा यह जगत-
अहं की धुरी पर
निरन्तर गतिशील
एक चक्रवात में-
बहिर्मुखी पदार्थ क्षर,
सदा फिसलता अर्थ
देखता मैं बेबस|
चक्र का चक्कर,
प्रवाह सातत्य
प्रतिपल घिसता अहं-
क्षर नहीं होता|
प्रयोजनों की धुन्ध में-,
निरर्थक अर्थ;
अनागत से त्रस्त मैं
और, -अनंत अज्ञात|
सत्यों के लोक में,
परमार्थ की खोज में,
अनंत आकाश में-
एक विहग उड़ता है !
अभीप्सा की ऊष्मा-
अस्पष्ट, शब्दहीन,
अमूर्त, इन्द्रियातीत;
अनंत की माटी में,
रसमय कोई प्राण है;
श्रद्धा का बीज और,
विश्वास का संबल; पर,-
सृजन अभी बाकी है !
अनुप्लब्ध आदर्श,
अभीप्सा, -निस्पंद और शान्त;
एक शक्ति-स्पंद, -अमूर्त,
अदृश्य,
पदार्थ, -निरवयव,
शुद्ध,
द्वन्दों का विपरीत छोर !
द्वन्दों में उतरता हुआ-
परात्पर, अनंत, अव्यक्त,-
कोई समुद्र शान्त;
पदों में विभाजित अव्यक्त,
पदार्थ में व्यक्त अर्थ;
मैं,-द्रष्टा,-
अवाक, निःशब्द और मौन !
वर्धित होती कोई ज्योति, -क्षीण !
अभीप्सा बस एक-
हे सत्य,- आविर्भव !
-अशोक “मनीष’’
शाश्वत उषा
वही उषा, -नित-नवीन
जगाती है मुझे रोज !
उसका सौंदर्य अलौकिक,
पुकारता है मुझे पर...
बहता रहता हूँ मैं
भौतिक संवेदनाओं की धारा में
भटकता रहता हूँ,-
पंचेंद्रियों की बंद कारा में !
मैं, -एक आत्मा,
स्रष्टा, नियंता और भोक्ता
अपने मूल स्रोत से भटकी हुई
अपनी ही सीमाओं से त्रस्त
संकुचित और मजबूर
नव-सृजन के लिए आतुर !
हृदयाकाश में फूटता है घट
विसर्जित होता अहं|
अज्ञात लोक की किरणें सतरंगी
भेंटती हैं धरती
छूती हैं, -तन मन !
हृदयाकाश का पंक्षी एक
अमित सौन्दर्य का खोजी, -हृदयस्थ
अनंत का अभीप्सु
बढ़ती अभीप्साग्नि
मौन पुकार और
नव सृजन की आतुरता
उन्मुक्ति की आस में
चेतना का समुद्र, -अनिर्वचनीय !
अज्ञात लोक की किरणें सतरंगी
भेंटती हैं धरती
छूती हैं, तन-मन !
अनाहद नाद एक
मौन मैं निस्पंद,
अनंत का स्पर्श,
एक नवजन्म |
-अशोक “मनीष’’
शिशु को पलने दो
दर्द मेरी हार है
हार का दर्द,
अहं की मृत्यु है !
कामना के धुंवे से
दर्द को उठने दो
निश्चेतन पत्थर को
अग्नि में जलने दो
पत्थर पिघलने दो !
मैं की चीख को,
समर्पंण के यज्ञ में
दर्द को आहुति बन,
अभीप्सा की अग्नि में
मौन बन जाने दो;
अवरोहण, नवचेतना का,
आरोहण, बन जाने दो !
मैं तो संसार हूं
अनंत में सांत हूं
हमारे संबन्धों को
प्रेम में पलने दो !
मन तो अज्ञानी है
हलचल सब, तेरी है
मन, मौन होने दो,
शिशु को बढ़ने दो,
नया जगत बनने दो !
कामनाओं के फ्रेम में
स्फटिक प्रारूप यह,-
मेरा अध्यास, -पथराये प्रारूप पर
एक चोट पड़ने दो !
पुरातन यह पीड़ा है
हलचल सब तेरी है
कामना की सुलगन को
अग्निशिखा बनने दो !
करुणा को बहने दो
कृपा को उतरने दो
रूप को बढने दो
पूर्ण उसे बनने दो
नव-सृजन होने दो !
नित्य प्रगतिशील जग,
तुम्हारा ही आंचल है
इस प्रेम के आंचल में
शिशु को पलने दो !
-अशोक “मनीष’’
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
पंचेन्द्रियों में बंद मैं
देखता हूं अपनी सीमाऐं
उस पार,-कुछ है,
मेरे बोध की सीमाओं से परे-
अदृष्य, अज्ञात, अनंत !
छूता है मुझे-
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
अनंत-अज्ञात का आकर्षण-दुर्निवार !
खटखटाता है मेरी सीमाऐं
मेरी सत्ता का कोई अंग
पंचेन्द्रिय बोधों से स्वतंत्र,
भरता है उड़ानें,-
संभावनाओं की अनंत दिशाओं में, -
इस पार और उसपार !
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
पंचेन्द्रिय बोधों के प्रिज्म पर
उतरता है रंगहीन द्रव्य, -अमूर्त !
उभरते हैं स्वर्गिक रंग
जगत बनता है ठोस
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
चेतना का समुद्र, -अनंत;
मेरी छोठी आंखों में,
वहाँ तैरता है एक अनंत
बनता है एक आधार और पुल,
सांत और अनंत के बीच;
होता है सृजन एक, -नवीन,
मेरी मध्यवर्ती सीमाओं पर;
होता है कुछ घटित
एक जगत बनता है ठोस
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
पथराये इस विश्व में,
जड़त्व की निष्चेतना में-
जीवन की हलचल,
तथाकथित ऊर्जातरंग,
भावहीन, निर्जीव और जड़;
कोषाणुओं के रसायनिक संघात
परास्परिकता,- आदानप्रदान, सामंजस्य,-
ऋतत्व का सत्य, -सूक्ष्म;
आज्ञाकारी तारे और सूर्य,
मेरी अभीप्सा, प्रार्थना और प्रेम,
ऊष्मा यह मधुर !
कैसे कहूं कि सब झूठ है !
-अशोक “मनीष’’
अदिति का पुत्र
क्या कुछ तुम्हारा है ?
तुम्हारा सब ‘न्यास’ है
‘न्यासधारी’ सेवक हो
प्रभु ‘लाभधारी’ हैं !
कामना तो प्रवाह है
सारा छ्ण-भंगुर जगत
तुम्हारा व्यामोह है !
तमस से द्वन्द्व है
उपचय है, वृद्धि है
तुम यंत्र साधन हो !
प्रकाश की जीत का
तुम्हारा विश्वास ही
विजय का प्रमाण है !
तमस में गिरा सही
अदिति का त्यागा हुआ
अदिति के पुत्र अहो-
तुम तो आदित्य हो !
-अशोक
‘मनीष’
रहस्यमय अग्नि
कैसी यह अग्नि भला
नहीं, कामाग्नि नहीं
कामना का पता नहीं
त्याग भी तो नहीं यहाँ
‘याचना’ यह कैसी है !
क्या मैं निवेदित करूँ ?
अपना, कुछ अपना नहीं
जीवन यह कैसा है ?
प्रियतम का पता नहीं
कैसी यह ऊष्मा है ?
यह प्रेम भला कैसा है ?
किसकी पुकार यह-
किसका मैं खोजी ?
पाप-पुण्य, जीवन सकल
स्वाहा सब स्वाहा है !
स्वामी का पता नहीं
तत परम जानूँ नहीं
किसको निवेदित मैं
कौन देव मेरा है ?
अग्नि यह रहस्यमयी
जलन का पता नहीं
कैसी मिठास अहा,
कैसी यह ऊष्मा है !
ऊर्ध्वमुखी अग्नि एक
पल पल का धर्म कर्म
ऊष्मा में पगे बढ़ें
ऊष्मित यह जीवन हो !
रोज अहं गल रहा
कौन फिर बच रहा ?
रोज गलूँ चुकूं नहीं
अग्नि मधुर जलने दो !
--अशोक ‘मनीष’